Monday, 18 February 2013

मैंने ख़ुदा को भेंज दी,
रोटी,कपड़ा और मकान के लिए अर्जी ,
लेकिन ,
बड़े साहब की तरह .
इस बार भी उन्होंने ,
इसे रद्द कर दी .
   

Thursday, 12 April 2012

कंकड़ किसी ने फेंके ,पत्थर किसी ने मारे ,
हर  दर्द सह  गया मैं ,हर  बार    मुस्कुराया .
बातों की तीर से मैं ,जब-जब हुआ हूँ घायल ,
आँखों  में एक समंदर जाने  कहाँ  से  आया ,
कोई  मरहम  लगा  दे ,यह  तो नहीं  जरूरी ,
फिर सामने किसी के ,क्यों ज़ख्म अपने खोलो ,
लोगों को क्या पड़ी है ,अपने को ख़ुद सम्हालो ,
रोना  अगर  पड़े  तो, चुपचाप   कहीं  रो  लो .
  (दिनांक 12 -4 -2012 ) 

Tuesday, 27 March 2012

.....और अंत में एक कविता मेरी भी -

पापा से दूर ,पापा के पास 
  (दिनांक 23 -12 -2003 ,राँची )



तुतली जुवान से पापा कहना सीखा था,
उनकी उंगलियाँ पकड़ कर चलना सीखा था ,
थी मैं बहुत छोटी तब ,
बची है धुँधली सी एक याद अब -
आँखों में आँसू लिए ,
प्यार से वाणी सने ,
जाने की बात कही ,पापा ने मुझसे जब .
मैं छोटी थी ,नासमझ थी ,
रूठ गयी पापा से ,
उनकी इस बात पर.
पर कराती क्या !
जाना तो था हीं पापा को वनवास पर .
बीतते गए साल ,
और हुयी मैं समझदार .
पापा आये और मैं खिल उठी तार -तार .
मैं खुश थी ,
मैं उत्सुक थी -
"मेरे पापा आयें हैं "!
मैं हवा से ,जमीन से आसमान से ,
सबसे कहती फिर रही थी -
"मेरे पापा आयें हैं ".
पर यह क्या !
फिर एक दिन जाना था पापा को .
कर्तव्य ने फिर से ,
पुकारा था पापा को .
मैं चुपचाप देखती रह गयी उस चहरे को ,
जहाँ सिर्फ थकान थी ,
एक फीकी मुस्कान थी ,
मैं एक टक ताकती रह गयी उस चहरे को .
मैं खुश हो कर झूम उठती थी ,
आते थे पापा जब ,
पर गुमसुम कहीं अन्धेरे में ,
खो जाती थी ,
जाते थे पापा जब .
डरती हूँ -
शायद जब फुर्सत मिले पापा को आने को ,
मैं न हो जाऊं तैयार ,
रण कें उतर जाने को .



ऐ वतन
 (यह कविता वर्ष 1962 में chinese aggression
  के समय लिखी गयी थी.)



कतरा-कतरा लहू का तुम्हारे लिए ,
मेरी हर साँस है, बस  तुम्हारे लिए ,
मेरा मन ,मेरा तन है तुम्हारे लिए ,
ऐ वतन हम बने हैं    तुम्हारे लिए .

जिसकी आँचल में सुख चैन तुमको मिला ,
गोद में जिसके     बचपन   तुम्हारा खिला ,
बारूदी   गंध  हर  ओर   है   अब         वहाँ,
कर्ज   मिट्टी   का   तुमने  चुकाया   कहाँ ,

तुम  उठो , इन  हवाओं  के  रुख  मोड़  दो ,
हाँथ   नापाक   जो   उठ   रहे ,  तोड़    दो ,
ज़िन्दगी   की   कहानी   यहीं   छोड़    दो ,
आगे   बढ़ ,सर पे अपने कफ़न  ओढ लो .

Sunday, 25 March 2012

पिता..
(पापा ने यह कविता father 's  day के दिन
लिखी थी .उनहोंने यह कविता स्वर्गीय
दादा जी को dedicate किया था )
  (दिनांक 15 -06 -2008 ,राँची )



झुर्रियों में लिपटा,
लेकिन सदा की तरह हँसता,
एक चेहरा कौंधता है
मेरे जहन में,
देखता हूँ पिता को-
अपने जहन में.
देखता हूँ एक तरुवर को,
जो धूप की तपिश,
बारिश के थपेड़ों,
और कांपती हुई ठंडी रातों को,
सहता गया,
निः:शब्द ,निर्विराम,
मेरे लिए,
सिर्फ मेरे लिए.
देखता हूँ पिता को-
अपने झुके हुए कन्धों पर,
मुझे लेकर चलते हुए,
उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर,
हर पल,हर कदम,
चलते हुए ,सांस के बड़े- बड़े घूँट लेकर.
मेरे लिए,
सिर्फ मेरे लिए.
तुम थक नहीं सकते,
तुम बूढ़े हो नहीं सकते,
तुम मर नहीं सकते,
क्योंकि  तुम पिता हो,
मेरे पिता हो .

होली..
 (इन पंक्तियों में एक तरफ जहाँ
 होली की मस्ती है वहीं व्यंग भी है )
 (दिनांक 14 -03 -2006 ,राँची )


महँगी के मार देख देख बुरा हाल बा ,
केहू बाप-बाप करे,केहू मालामाल बा,
कईसे मनायीं हम होली ए बबुआ ,
महंगा पिचकारी,रंग और गुलाल बा.


लाल,पियर,हरिअर,लागे अंग अंग में,
बबुआ बौड़ा गईले ,होली के हुडदंग में,
होली के टोली में,हंसी और ठिठोली में,
माई-बाप टुन्न बाड़े,भंग के तरंग में .

एक समझदार पति..
(यह कविता पापा ने मम्मी को
चिढ़ाने के लिए लिखी थी )
   (वर्ष  1990 )




मेरी भी हैं,एक पत्नी,
(एक ही हैं गनीमत है इतनी),
सुन्दर,अति सुन्दर,
(सिर्फ पड़ोसियों के लिए)
कभी कभी मुझपर भी मेहरबान होती हैं,
(बस,घडी दो घडी के लिए)
सुबह से शाम तक,
मै उनकी बक-बक,
हंस हंस कर सुनता हूँ,
(और अकेले में बैठकर सर धुनता हूँ .)
तबभी  उस अकल मंद को
अकल्मन्द ही कहता हूँ,
हर समय उनकी तारीफें करता हूँ,
उनके भरे पूरे परिवार की,
गुण गाने की सजा भोगता हूँ,
उनके माँ-बाप, ढेर सारे भाई -बहनों को,
घर बुलाने से कभी नहीं रोकता हूँ,
इस बारे में मै गलती से भी कभी नहीं सोचता हूँ,
परन्तु यह सब मेरी मजबूरी है,
मेरे लिए जरूरी है,
क्योंकि ,हर समझदार पति,
अपनी नासमझ पत्नी से,
इसी तरह adjustment करता है,
यानी चौबीसों घंटे डरता है .