आपबीती
(यह कविता पापा ने वर्ष 2008 में अपने
retirement के तुरत बाद लिखी थी )
(वर्ष 2008 ,रांची )
(यह कविता पापा ने वर्ष 2008 में अपने
retirement के तुरत बाद लिखी थी )
(वर्ष 2008 ,रांची )
रोज रोज की भाग दौड़ में
समझ नहीं कुछ भी आया ,
किससे मिलन, जुदाई किससे ,
कौन गया और कौन आया .
कभी फिसलता, कभी सम्हलता
निकल बहुत मैं दूर आया
लोग छूटते गए, भीड़ छूटी,
मैं रोक नहीं पाया .
कब चहरे पर पड़ी झुर्रियां ,
बालों पर कब चढ़ी सफेदी ,
जाने कब ढल गयी दोपहर ,
संध्या ने कब दस्तक दे दी .
फुर्सत मुझे कहाँ थी देखूं ,
आसपास कब कहाँ क्या हुआ ,
मिकिया कब बन गयी आस्था ,
चिकिया कब बन गयी अपूर्वा.
आज मिला है जब विराम तो ,
थका- थका खुद को पाया ,
जीवन का संक्षेप यही है ,
कुछ खोया और कुछ पाया .