Saturday, 21 January 2012

साथ तुम्हारा
(अपने retirement के सिर्फ आठ दिनों
 के बाद पापा द्वारा लिखी गयी कविता )
(दिनांक 09 -08 -2008 ,रांची )



हाँथों में ले हाँथ तुम्हारा ,
बढ़ा किये अन्जान डगर , 
साथ -साथ चलते ,जाने 
कैसे ये कटता गया सफ़र .
संग -संग मिलकर देखे थे ,
हमने कितने हीं सपने ,
कभी हँसे और कभी रो लिए ,
कौन पराये ,कौन अपने .
लोग मिले और छूट गए ,
यह पथ अब तो एकाकी है ,
बीत गयी दोपहर ,ढला दिन,
बस अब संध्या बाकी है .
दे देना मुस्कान मुझे, 
जब मैं उदास हो जाऊंगा ,
मुझे सहारा दे देना ,
जब मैं बूढ़ा हो जाऊंगा .
   
हर ग़म को भूल जाओ
(दिनांक 09 -01 -2012 ,बंगलोर ) 

हँसने के सौ बहाने हैं आज भी जहाँ में ,
चुन -चुन के इनसे अपने सपने नए सजाओ .
इस शोर -शराबे में ,संगीत भी मधुर है ,
इसकी धुनों को अपने होंठों पे गुनगुनाओ .
काली ,अन्धेरी रातों में झांकते हैं तारे ,
तारों की झिलमिलाहट से राह जगमगाओ .
काटें बहुत हैं लेकिन ,काटों के जंगलों में ,
कुछ फूल भी खिले हैं ,उनसे नजर मिलाओ .
लाखों की भीड़ में हीं होता है एक मसीहा ,
मूंदो न अपनी आँखें ,उसको गले लगाओ .
हर रंग जिंदगी का ,होता है खूबसूरत ,
इस सोंच के बहाने ,हर गम को भूल जाओ.
      

Thursday, 19 January 2012

माँ
(पापा को यह अफ़सोस रहता था कि उन्होंने अनेक
विषयों पर कवितायें लिखीं लेकिन वह माँ पर कुछ
नहीं लिख पाये.वे कहते थे ,"माँ" शब्द इतना व्यापक
है कि जब लिखने बैठता हूँ तो कुछ समझ में नहीं आता
है , क्या लिखूं !यह कविता एक दिन अचानक 2 .30  .
बजे रात में उठ कर उन्होंने लिखी )
      (दिनांक 18 -01 -2012 ,पटना )


माँ,
कई बार सोंचा ,
पर लिख नहीं कुछ पाता हूँ ,
सैकड़ों परछाइयों में ,
दृश्यों में ,
खो जाता हूँ ,

दूध की कटोरी ,
टूटा सा खटिया ,
बाँस का पंखा ,
नन्हा सा तकिया,

मीठी लोरियां ,
मंद -मंद थपकियाँ ,
काजल के टीके ,
प्यार भरी झिड़कियाँ,

प्यार और सुकून का घर ,
एक झीना आँचल ,
दुर्बल सी काया ,
बस प्यार और समर्पण ,

समझ नहीं आता है ,
कहाँ से शुरू करूँ ,
और कहाँ अन्त करूँ ,
माँ ,
तू अनन्त है ,
तू तो अनन्त है .     


Friday, 6 January 2012

बच्चों के मुख से 
(आभव और आरुष को बहुत छोटी उम्र से ,
लगभग एक वर्ष की उम्र से हीं स्कूल जाना
पड़ा .पापा इस छोटी उम्र में उन्हें स्कूल जाते
दखते तो उन्हें बहुत पीड़ा होती .इस कविता
 के माध्यम से उन्होंने अपनी पीड़ा को व्यक्त
करने की कोशिश की है. )
       (दिनांक 06 -०१-2012 ,बंगलोर )


हाथी, घोड़े ,बन्दर ,भालू ,
इतने सारे ढेर खिलौने ,
मुझे नहीं अच्छे लगते हैं ,
मुझे नहीं इनमें कुछ लेने .
यह सब मुझको नहीं चाहिए ,
माँ तुम जल्दी आओ तो ,
कितनी देर करोगी ,
कम से कम यह भी बतलाओ तो .
मैं रोता रह गया ,मुझे
लग रही भूख थी जोरों की ,
तुम्हे बहुत मैं ढूंढ़ रहा था ,
माँ तुम बोलो कहाँ गयी थी ?,
नींद मुझे जब लगाती है ,
तो लगता है माँ आएगी.
दौड़  गोद में ले लेगी ,
थपकी दे मुझे सुलायेगी .
कल भी राह देखता मैं रह गया ,
नहीं बिल्कुल  सोया ,
नींद आ रही थी जोरों की ,
लेकिन सारे दिन रोया .
कितना अच्छा होता माँ ,
जो हम तुम सदा संग रहते ,
खेल खेलते तरह -तरह के ,
सारे दिन मिलकर हँसते.
टीचर मेरी अच्छी  है ,
पर  वह तो केवल टीचर है ,
भैया -दीदी ,संगी -साथी ,
माँ तो सबसे ऊपर है .
सुनो ध्यान से मेरी बातें ,
मुझे यही बस कहना है ,
कल से चाहे कुछ भी कर लो ,
अलग नहीं अब रहना है .
        

Thursday, 5 January 2012

मेरे बच्चे 
(दिनांक 26 -01 -२०११,बंगलोर )


साँस धीरे -धीरे पिघलती  जायेगी ,
पिघलती जायेगी ,
और मैं अतीत बन जाऊंगा .
अतीत के पन्नों में खो जाऊँगा .
किस्से- कहानियाँ  बनकर रह जाऊँगा .
लेकिन मेरे बच्चे ,
मैं अपने आपको ,
तुमसे अलग नहीं रह पाऊंगा .
यह मेरे लिए नामुमकिन  होगा ,
बिलकुल नामुमकिन होगा ,
मैं अपने आपको ,
तुमसे अलग नहीं कर पाऊंगा .
मैं आऊंगा ,
सुबह की किरण बन कर ,
तुम्हे  जगाने को ,
मैं आऊंगा ,
हवा का शीतल झोंका बन कर ,
तुम्हे सुलाने को .
मैं आउंगा ,
दुधिया चाँदनी बन कर ,
तुम्हे नहलाने को .
मैं आऊंगा ,
बच्चों की किलकारियाँ  बन कर ,
तुम्हे हँसाने को
गुदगुदाने  को
या फिर ,
तुम जब -जब उदास होगे ,
मैं तुम्हारे कानों में गुनगुनाऊंगा ,
तुम सदा खुश रहना ,
मेरे बच्चे ,
तुम सदा खुश रहना .

        

Tuesday, 3 January 2012

मेरे पापा 
(एक बार पापा जब बंगलोर आये थे , उस समय
संजय जीजू का deputation कुछ महीनों केलिए
गोआ में था .आरुष तब करीब एक वर्ष का था .
जब जीजू घर आते थे तब आरुष बहुत खुश होता
 था .जीजू के जाने के बाद वह उन्हें बहुत miss
 करता था .इसी backgruond  में यह  कविता
दिनांक 11 -12 -2011 को लिखी गयी )


आओ मुन्नु ,आओ चुन्नु ,
देखो पापा आये हैं .
मम्मी तुम भी जल्दी आओ ,
देखो पापा आये हैं .
चहक उठा है ,महक उठा है ,
इस घर का कोना -कोना .
पापा के संग धूम -धड़ाका ,
अब कैसा रोना -धोना .
इतने सारे ढेर खिलोने ,
झोली भर खुशियाँ लाये .
पापा तुम कितने अच्छे हो ,
बहुत देर से क्यों आये ?
कितना अच्छा लगता है .
जब मुझे गोद में लेते हो .
सबकुछ तुरत बदल जाता है ,
क्या जादू कर देते हो .
डरता हूँ, मेरी ये खुशियाँ
क्या हरदम हीं रह पाएंगीं ?
मुझे छोड़ जब जाओगे ,
ये भी वापस हो जायेंगीं .
रोक नहीं पाऊंगा तुमको ,
दूर चले हीं जाओगे .
इतना मुझे बता देना ,
ओ पापा फिर कब आओगे  ?
              
दीपावली 
(यह कविता दिनांक 25 -10 -2010 को
दीपावली की पूर्व संध्या में लिखी गयी थी )


यहाँ हर तरफ हीं अँधेरा बहुत है ,
एक दीया तो जलाओ ,एक दीया तो जलाओ .
अँधेरे को भी है, इंतजार रोशनी का,
एक दीया तो जलाओ ,एक दीया तो जलाओ .

रोशनी का भले एक कतरा सही ,
है सफ़र उसका छोटा ,यह भी सही ,
कहीं गुम  न हो जाए ,यह गम नहीं ,
उसकी पहचान है ,बस यही कम नहीं ,
उम्मीदों से अपनी दीवारें सजाओ  ,
एक दीया तो जलाओ ,एक दीया तो जलाओ .

मत हाँथ खींचो दीयों को जलाने से ,
शायद हजारों दीये जल उठेंगें .
कितने घरों में मनेगी दीवाली ,
कितने हीं आँखों में सपने सजेगें .
दीपावली है ,आज अपने भी अन्दर ,
एक दीया तो जलाओ ,एक दीया तो जलाओ
      
रिश्ते
 (बचपन में हम घर- परिवार ,अपने परिवेश
सबसे बहुत अधिक जुड़े रहते हैं . जब बड़े हो
 जाते हैं तब भी यद्यपि वह प्यार- अपनापन ,
सबकुछ बना रहता है लेकिन पता नहीं क्यों
 कहीं कुछ बदल सा जाता है. )
       (दिनांक 08 -12 -2011 )


हम आज भी वही हैं ,हम अजनबी नहीं हैं ,
लेकिन पता नहीं क्यों ,इतने बदल गए हैं .
थी प्यार और मुहब्बत ,पहले हमारे दिल में ,
अब एक दूसरे से ,बिल्कुल सम्हल गए हैं .
शिकवे -शिकायतों के वो दौर भी ख़तम हैं ,
बेवाकियों की हद से आगे निकल गए हैं .
हम साथ -साथ होकर भी हैं अलग -अलग हीं,
इस भीड़  में हमारे रिश्ते फिसल गए हैं .
जब -जब गले मिले हम ,बस इस तरह लगा है ,
कुछ तुम बदल गए हो ,कुछ हम बदल गए हैं .