Tuesday, 27 March 2012

.....और अंत में एक कविता मेरी भी -

पापा से दूर ,पापा के पास 
  (दिनांक 23 -12 -2003 ,राँची )



तुतली जुवान से पापा कहना सीखा था,
उनकी उंगलियाँ पकड़ कर चलना सीखा था ,
थी मैं बहुत छोटी तब ,
बची है धुँधली सी एक याद अब -
आँखों में आँसू लिए ,
प्यार से वाणी सने ,
जाने की बात कही ,पापा ने मुझसे जब .
मैं छोटी थी ,नासमझ थी ,
रूठ गयी पापा से ,
उनकी इस बात पर.
पर कराती क्या !
जाना तो था हीं पापा को वनवास पर .
बीतते गए साल ,
और हुयी मैं समझदार .
पापा आये और मैं खिल उठी तार -तार .
मैं खुश थी ,
मैं उत्सुक थी -
"मेरे पापा आयें हैं "!
मैं हवा से ,जमीन से आसमान से ,
सबसे कहती फिर रही थी -
"मेरे पापा आयें हैं ".
पर यह क्या !
फिर एक दिन जाना था पापा को .
कर्तव्य ने फिर से ,
पुकारा था पापा को .
मैं चुपचाप देखती रह गयी उस चहरे को ,
जहाँ सिर्फ थकान थी ,
एक फीकी मुस्कान थी ,
मैं एक टक ताकती रह गयी उस चहरे को .
मैं खुश हो कर झूम उठती थी ,
आते थे पापा जब ,
पर गुमसुम कहीं अन्धेरे में ,
खो जाती थी ,
जाते थे पापा जब .
डरती हूँ -
शायद जब फुर्सत मिले पापा को आने को ,
मैं न हो जाऊं तैयार ,
रण कें उतर जाने को .



ऐ वतन
 (यह कविता वर्ष 1962 में chinese aggression
  के समय लिखी गयी थी.)



कतरा-कतरा लहू का तुम्हारे लिए ,
मेरी हर साँस है, बस  तुम्हारे लिए ,
मेरा मन ,मेरा तन है तुम्हारे लिए ,
ऐ वतन हम बने हैं    तुम्हारे लिए .

जिसकी आँचल में सुख चैन तुमको मिला ,
गोद में जिसके     बचपन   तुम्हारा खिला ,
बारूदी   गंध  हर  ओर   है   अब         वहाँ,
कर्ज   मिट्टी   का   तुमने  चुकाया   कहाँ ,

तुम  उठो , इन  हवाओं  के  रुख  मोड़  दो ,
हाँथ   नापाक   जो   उठ   रहे ,  तोड़    दो ,
ज़िन्दगी   की   कहानी   यहीं   छोड़    दो ,
आगे   बढ़ ,सर पे अपने कफ़न  ओढ लो .

Sunday, 25 March 2012

पिता..
(पापा ने यह कविता father 's  day के दिन
लिखी थी .उनहोंने यह कविता स्वर्गीय
दादा जी को dedicate किया था )
  (दिनांक 15 -06 -2008 ,राँची )



झुर्रियों में लिपटा,
लेकिन सदा की तरह हँसता,
एक चेहरा कौंधता है
मेरे जहन में,
देखता हूँ पिता को-
अपने जहन में.
देखता हूँ एक तरुवर को,
जो धूप की तपिश,
बारिश के थपेड़ों,
और कांपती हुई ठंडी रातों को,
सहता गया,
निः:शब्द ,निर्विराम,
मेरे लिए,
सिर्फ मेरे लिए.
देखता हूँ पिता को-
अपने झुके हुए कन्धों पर,
मुझे लेकर चलते हुए,
उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर,
हर पल,हर कदम,
चलते हुए ,सांस के बड़े- बड़े घूँट लेकर.
मेरे लिए,
सिर्फ मेरे लिए.
तुम थक नहीं सकते,
तुम बूढ़े हो नहीं सकते,
तुम मर नहीं सकते,
क्योंकि  तुम पिता हो,
मेरे पिता हो .

होली..
 (इन पंक्तियों में एक तरफ जहाँ
 होली की मस्ती है वहीं व्यंग भी है )
 (दिनांक 14 -03 -2006 ,राँची )


महँगी के मार देख देख बुरा हाल बा ,
केहू बाप-बाप करे,केहू मालामाल बा,
कईसे मनायीं हम होली ए बबुआ ,
महंगा पिचकारी,रंग और गुलाल बा.


लाल,पियर,हरिअर,लागे अंग अंग में,
बबुआ बौड़ा गईले ,होली के हुडदंग में,
होली के टोली में,हंसी और ठिठोली में,
माई-बाप टुन्न बाड़े,भंग के तरंग में .

एक समझदार पति..
(यह कविता पापा ने मम्मी को
चिढ़ाने के लिए लिखी थी )
   (वर्ष  1990 )




मेरी भी हैं,एक पत्नी,
(एक ही हैं गनीमत है इतनी),
सुन्दर,अति सुन्दर,
(सिर्फ पड़ोसियों के लिए)
कभी कभी मुझपर भी मेहरबान होती हैं,
(बस,घडी दो घडी के लिए)
सुबह से शाम तक,
मै उनकी बक-बक,
हंस हंस कर सुनता हूँ,
(और अकेले में बैठकर सर धुनता हूँ .)
तबभी  उस अकल मंद को
अकल्मन्द ही कहता हूँ,
हर समय उनकी तारीफें करता हूँ,
उनके भरे पूरे परिवार की,
गुण गाने की सजा भोगता हूँ,
उनके माँ-बाप, ढेर सारे भाई -बहनों को,
घर बुलाने से कभी नहीं रोकता हूँ,
इस बारे में मै गलती से भी कभी नहीं सोचता हूँ,
परन्तु यह सब मेरी मजबूरी है,
मेरे लिए जरूरी है,
क्योंकि ,हर समझदार पति,
अपनी नासमझ पत्नी से,
इसी तरह adjustment करता है,
यानी चौबीसों घंटे डरता है .

राखी एक बहन की...
(दिनांक 24-08 -1991 ,पटना )




तुम समर्थ हो,तुम को क्या दे सकती है यह बहना.
बस,कामना यही करती है-सदा सुखी तुम रहना.
अबतक सबलोगों  ने नारी को अबला ही माना है.
दुर्बलता का एक पर्याय और अबला  ही जाना है .
लेकिन यह याचक ही आज,तुम्हे कुछ देने आई है.
राखी के धागों में, अपना बाँध खजाना लायी है.
धन,दौलत,सम्मान,सुयश तो सबको मिल जाता है
लेकिन प्यार बहन का,क्या सबको ही मिल पाता है?
आज तुम्हे आशीष दे रही है,युग-युग तुम सुखी रहो
रक्षा करे बहन की राखी,कभी तुम्हारा अहित न हो

बड़ों के पाँव...




बड़ों के पाँव,
एक पड़ाव हैं,
थकान के,
प्रतीक हैं ढलान के,
संवाद हैं,
दो पीढ़ियों के बीच के.
जब तुम बड़ों के पाँव छूते हो,
तो फटी बिवाइयों से
उजागर होता है,
तुम्हारे सामने एक सत्य,
कि हर ज़िन्दगी को,
गुजरना होता है,
कभी न कभी,
उबड़-खाबड़ राहों से,
और उजागर होता है एक अतीत भी,
जो निरंतर पिघलता जाता है,
वर्त्तमान बन कर.



तुम्हारे पापा..
(जब हम बहनें बहुत छोटी थीं, तब पापा ने
हमलोगों केलिए यह कविता लिखी थी .)
  (दिनांक 11 -02 -1991 ,पटना )



पापा की बात का तुम,
बिलकुल बुरा न मानो,
पापा बहुत भले हैं-
हरदम ये बात जानो.

पापा की है ये ख्वाहिश,
आगे रहो सदा तुम,
पापा का है ये सपना,
आगे सदा बढ़ो तुम.

पापा ने भी देखा था,
एक बेहतरीन सपना.
पापा ने भी चाह था,
सुन्दर भविष्य अपना.

कुछ बेबसी ने उनको,
पढने नहीं दिया था.
मजबूरियों ने आगे,
बढ़ने नहीं दिया था.

जो खुद न बन सके वो,
तुमको बनायें पापा.
बैठे हैं अब तुम्ही से
आशा लगाये पापा.

डोरी..
(राँची में posting के दौरान शुरू में पापा को बहुत
दिनों तक अकेले रहना पड़ा.एकबार मम्मी वहाँ
चार -पाँच दिनों के लिए  गयीं .कपड़े सुखाने के
लिए  उनहोंने आँगन में एक डोरी बाँध दी .यह
 कविता उसी पर है.) .
     (दिनांक 25 -11 -2003 )



जब तुम यहाँ आई थी,
तुमने बाँध दी थी
आँगन में एक डोरी.
मैं झल्लाया था,
गुस्साया था,
तुम हंसती रही,
और बंधे रहने दी वह डोरी.
बहुत दिन बीत गए ,
बहुत रातें कट गयीं,
सूरज दस्तक देता रहा,
चाँदनी झाँकती रही,
अतीत धुंधलाता गया,
साल दर साल,
झुर्रियों में बदलते गए,
पल दर पल,
हम और तुम बदलते गए,
लेकिन मेरे आँगन में
आज भी बंधी  हुई है वह डोरी,
न मैं उसे निहारता हूँ,
न छूता हूँ,
न इसके बारे में सोचता हूँ,
फिर भी नहीं खोल पाया हूँ,
आजतक यह डोरी,
आज अकेले में बैठ कर
जब मैं इसे निहारता हूँ,
छूता हूँ,
इसके बारे में सोचता हूँ,
तो पाता हूँ,
सूने घर का,
एक हिस्सा बन गयी है यह डोरी.







जाड़े की धूप..
(दिनांक  29 -12 -2002 ,राँची)


शाम के धुंधलके में फीकी हुई धूप,
एक छोटी ज़िन्दगी को जीती हुई धूप,
किसी  बूढ़े- माँ बाप को सहारा देती हुई धूप,
अन्जान गलियों में आवारा होती हुई धूप,
किसी आँगन में रुकने को तरसती हुई धुप ,
कहीं मंद- मंद आहिस्ता सरकती हुई धूप,
किसी संगमरमरी देह से लिपटती हुई धूप,
कहीं शर्माकर,सकुचाकर,सिमटती हुई धूप.

पत्थर...
(एक बार पापा और मम्मी में किसी बात
पर झगड़ा हो गया .पापा ने गुस्से में मम्मी
पर यह कविता लिखी .बाद में जब mood
ठीक हुआ तो उन्होंने सबलोगों को सुनाया.
सुनकर पापा ,मम्मी के साथ- साथ बाकी
लोगभी खूब हँसे .)
  (वर्ष   1998 )




पत्थर रोटी दे सकता है,
पत्थर कपड़े दे सकता है,
पर प्यार नहीं कर सकता है
पत्थर को तुमसे प्यार नहीं

जिस पत्थर को मन मंदिर में ,
देवी कह तुमने बिठा लिया,
अपनी छोटी सी दुनिया में,
एक फूल समझ कर सजा लिया


वह इन सबसे बेखबर रहा,
उसको कोई परवाह नहीं ,
पत्थर तो आखिर पत्थर है,
उसके सीने में प्यार नहीं.

शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर .....
(यह कविता पापा ने रांची से पटना
आते समय बस में लिखी थी )
    (वर्ष  2004)


चुनरी में लिपटी,
सहमी सी सिमटी,
तुम आई,
सकुचाई,
झुकी हुई आँखों से कितना कुछ कह गयी,
एकाकी जीवन में,
जुट गया था कोई,
सूत्रपात एक नए,
अध्याय का हुआ,
हर्षित,प्रफ्फुल्लित,
सबकुछ नया- नया,
बीतता गया समय,
दिवस,माह,वर्षों में,
चुकता गया जीवन
कई- कई टुकड़ों में.
आँखों पर चश्मे,
माथे पर सिलवटें,
स्याह से सफ़ेद
हो चुकी बालों की लटें,
फिर भी नहीं बंधी,
समय के बांधे,
अक्षुन्न रहीं,
वे सारी यादें,
हमनें सहेजे थे जिन्हें,
एक अलौकिक क्षण में,
पहले मिलन में .



घर


(पापा अपनी service life में ज्यादातर घर
से दूर हीं रहे,इसलिए वे घर की कमी को
सिद्दत से महसूस करते रहे .इस कविता
 में उनका यह दर्द झलकता है )



तुम इसे घरौंदा ,
या घोंसला,
कोई भी नाम दे दो,
यह कितना प्यारा होता है,
कितना अपना होता है
इससमे बच्चों की किलकारियां,
बड़ों की खामोशियाँ,
और माँ बाप के झुके हुए कंधे,
सब एक साथ होते हैं
बर्तनों की झंकार होती है,
चूड़ियों की खनक होती है,
माथे पर बह आई,
पसीने के बूंदों की चमक होती है
कभी रिश्तों के टूटने की आहट होती है,
कभी उनके जुड़ने की गर्माहट होती है
सिसकियाँ भी होती हैं,
खुशियाँ भी होती हैं.
कितना कठिन है, घर को परिभाषित करना!
घर,
हँसता है ,
उदास होता है,
रोता है,
लेकिन,
घर हमेशा घर होता है


कुछ बातें आपके साथ 
 
     पापा ने नियमित रूप से कुछ  नहीं लिखा .कभी अखबार के टुकड़े पर ,कभी सफ़र करते -करते ticket पर हीं या कभी हमलोगों की किसी कॉपी पर कविता लिख देते थे .यदि किसी की नजर पड़ जाती तो वह  उसे हिफाजत से रख लेता. इस कार्य में मम्मी का बहुत बड़ा योगदान रहा, बहुत सी कविताओं को तो  हमलोगों ने पुराने कागजों में से खोज -खोज कर निकाला. ..पता नहीं , उनकी कितनी कविताएँ खो गयी होगीं .
.
     पापा की कविताएँ मुझे शुरू से हीं बहुत अच्छी लगती थीं .जब मैं बहुत छोटी थी,कविता का meaning भी नहीं समझती थी, तब भी पापा से उनकी कविता , विशेष कर "बांसुरी " सुनाने की जिद करती थी .इस कविता में एक मिठास है ,एक तरंग  है .

      अभी हाल में ,जब पापा बंगलौर आये हुए थे ,मैंने अपनी इक्षा जाहिर की ,कि मैं उनकी कविताओं को एक जगह संकलित करना चाहती हूँ .वे तैयार नहीं हुए .उन्होंने कहा -मैं कविता कहाँ लिखता हूँ .हाँ ,जब कोई बात मुझे अन्दर तक छू जाती है, तो मैं  इसे लिख देता हूँ ,और फिर इसे एक shape दे देता हूँ ,बस इसे  तुम मेरी कविता कहती हो .मै जिद करती रही अपनी बात के लिये .अंत में उन्होंने permission दे  दिया.

       इन कविताओं में अलग -अलग रंग हैं .इनमें  कहीं संगीत है ,कहीं अन्तर कि पीड़ा है ,कही बीते दिनों की यादें हैं तो कहीं आने वाले दिनों के प्रति उत्साह है ,और हाँ कहीं -कहीं तीखे व्यंग भी हैं .

      पापा से पूछ -पूछ कर (जहां तक उन्हें याद आया ),मैंने एक -एक ,दो -दो लाइन में कुछ कविताओं के background भी  अंकित कर दियें हैं

      यह संकलन कुछ नहीं ,बस पापा के प्रति मेरा एक respect है .

Friday, 23 March 2012

तुम्हारी चूड़ियाँ...
  (वर्ष 1998 )


  
कभी खेल खेल में,
मैंने रख ली थी तुम्हारी चूड़ियाँ.
आज इन्हें जब देखता हूँ ,तो आँख भर आती हैं.
फुर्सत के क्षणों में तुम्हारी बहुत याद आती है.


कभी संग- संग बैठ कर,
चाँद को निहारना.
कभी मिल जुलकर चिड़ियाँ के टूटे घर को सवांरना,
कभी बारिश में,
गिरती हुई बूंदों को देखना,
कभी अलसाई झील में, तुम्हारा कंकडों को फेंकना.
इन चूड़ियों की परिधि में ,
एक ज़िन्दगी सिमट जाती है.
फुर्सत के क्षणों में तुम्हारी बहुत याद आती है .


चूड़ियाँ, जो कलाईयों में
खनखनाती थीं, हँसती थीं ,
जो  कभी मेरे लिए,
बस, खेल- दिल्लगी भर थीं ,
आज तुमसे अलग होकर
गुमसुम हैं, उदास हैं
अब मेरे लिए यादों का आइना हैं.
करीब होने का एहसास हैं.
एक टीस सी उठती है,
बीतें दिनों की जब बात निकल आती है.
फुर्सत के क्षणों में तुम्हारी बहुत याद आती है .











ए जी ,सुन तारु ??
(यह कविता पापा की अन्य कविताओं से
बिल्कुल अलग है .इसमें लालची माँ-बाप
 की मानसिकता पर तीखे व्यंग हैं )
      (वर्ष  १९९६ ,कहलगांव )



ए जी सुन तारु ?? 

बबुआ जवान भईले,बेंचे के सामान भईले ,
खोल के दूकान अब बैठ जाईं जा.
लड़िका के बाप भईलीं,राजा अपने आप भईलीं ,
दुनु प्राणी हमनी के ऐंठ जाईं जा.

ए जी सुन तारु ??
बबुआ त पढ़ तारे,दूर के शहरिया में,
दुनिया ख़राब बा,सब केहू कहता.
दिन - दुपहरिया में,रात के अंधरिया में
सब केहू लड़िका फँसावे में रहता .


ए जी सुन तारु ??
देख कौनो चंद्रमुखी,बबुआ फिसल गईलन,
तब तो बस हमनी के दुनिया ही लुट जाई,
चूर -चूर हो जाई जिंदगी के सपना,
ई बुढ़वा और बुढिया के किस्मत ही फूट जाई.


ए जी सुन तारु ??
लड़कवा में   हमनी के दुनिया बा, जान बा,
खेत बा ,खलिहान बा,मकान बा,दूकान बा,
लड़कवा हाथ से निकले न पावे बस ,
ए ही लेखा,हमनी के करे के कुछ काम बा.
ए जी सुन तारु ??


अहसास 
(वर्ष 1981 )



हसरत थी संग मिलकर,
बाटेंगे हर ख़ुशी गम.
हालात इस तरह हैं,
अनजान हो गए हम.
सारी फिज़ा वही है ,
फिर भी बदल गया कुछ,
यह सोच- सोच आखिर,
हैरान हो गए हम.
कोशिश रही हमारी,
रुक जाए चंद लम्हें,
एहसास हो रहा है,
नाकाम हो गए हम.
हर ओर मौज मस्ती है ,
शोर- शराबा है,
इस भीड़ में कहीं बस,
 गुमनाम हो गए हम.

एक तीज ऐसी भी 
 (एक बार पापा कहलगाँव से पटना तीज में आ
रहे थे .लेकिन derailment हो जाने के कारण समय
पर पटना नहीं पहुँच पा रहे थे.उन्होंने ट्रेन में बैठे -
बैठे ,ticket पर हीं यह कविता लिखी )
         (वर्ष  1997 )



पिछले कई दिनों से मन को संभालती थी,
की आज न सही तो वह तीज  में मिलेगा,
दुनिया के छोड़ सारे वह  काम चल पड़ेगा,
आकर मुझे हजारों आशीष, प्यार देगा.
न भूख ने सताया,न प्यास ने सताया ,
बस दुःख मुझे यही है,वह आज भी न आया

आरज़ू
   (वर्ष 1991 ,पटना )


फूलों की आरज़ू रही,दिल में मेरे सदा,
काँटों  से ही निबाह किये जा रहा हूँ मैं.
हँस- हँस के छिपा सीने में दर्द का समंदर,
एक ज़िन्दगी तबाह  किये जा रहा हूँ मैं.
हमनें दिए जलाने से हाँथ खींच डाले,
हर दिन को भी सियाह किये जा रहा हूँ मैं.
ये उम्र कट जाएगी,तुम तो रहो सलामत,
इतनी सी बस गुनाह किये जा रहा हूँ मैं.

एक बार फिर तुमसे बहुत दूर...
  (यह कविता भी जब जब पापा घर से दूर
  बाँका में रहते थे ,तब उन्होंने लिखी थी )
    (वर्ष 1997 ,बाँका)



जब पुरवैया,
धीरे धीरे मेरे करीब आती है,
तुम्हारे रेशमी आँचल का एहसास करा जाती है.
दूधिया चांदनी,
तुम्हारी संगमरमरी देह बन जाती है.
और पीपल के पत्तों की सरसराहट में,
तुम्हारी हँसी खनक जाती है.


ऐसे में,
अकेले होने का एहसास,
और भी बढ़ जाता है.
दर्द फिर से हरा हो जाता है.
लेकिन आज यह दर्द भी,
मुझे अपना लगने लगा है,
क्योंकि -
यह मुझे तुम्हारे करीब लाता है.

एक इंजिनियर की औरत...
 (इस कविता में पापा ने अपने अनुभवों के
आधार पर एक irrigation  engineer के जीवन
 का बहुत हीं सजीव चित्रण किया है )
     (दिनांक 25 -03 -1997 ,पटना )



वह एक इंजिनियर की औरत,
बैठी है पति के इंतज़ार में.
यादों के चंद टुकड़ों को,
सहेजती हुयी ,पिरोती हुई,
बैठी है पति के इंतज़ार में.


उसका पति भटकता है-
घने जंगलों में,
निर्जीव पत्थरों में, पहाड़ों में,
दूर- दूर तक फैले बियावानों में .


भटकता है-
माघ की सर्दियों में,
जेठ की दोपहरियों में,
या वर्षा की मूसलाधारों में.


भटकता है-
बंजर धरती की प्यास बुझाने को,
लोगों के खेंतो में ,घरों में ,
जीवन लाने को,
उनकी पथराई आँखों में,
उम्मीद जगाने को,


वह एक इंजिनियर की औरत,
बैठी है पति के इंतज़ार में.
उसका खुद का घर बंजर हो गया,
वह खुद प्यासी रह गयी
उसकी खुद की आँखें पथरा गयीं.

लेकिन उसका पति,
युग - स्रष्टा है,
राष्ट्र- निर्माता है.
वह एक इंजिनियर की औरत
बैठी है पति के इंतज़ार में.






तीज
(उन दिनों पापा की posting कहलगाँव में थी .
वे वहीँ  रहते थे .मम्मी पटना में रहती थीं .
तीज के मौके पर पटना आने केलिए पापा ने
 छुट्टी ले ली थी ,लेकिन अंतिम समय पर
उनकी छुट्टी cancel हो गयी थी )
   (दिनांक 17 -09 -1996 ,कहलगाँव )



अन्न का एक भी दाना नहीं लिया तुमने,
जल की एक बूँद भी नहीं कभी पिया तुमने,
मेरी सलामती, खुशहाली चाहने के लिए,
अपने ऊपर हज़ारों जुल्म ही किया तुमने.

दोपहर धूप में जब आसमाँ पिघलता हो,
जल रही होगी जमीं,लोग झुलसते होंगे,
कुछ उम्मीदों का सहारा लिए हुए केवल,
प्यास से होंठ तेरे    सूखते         रहे होंगे.

रात को लोग जब आराम कर रहे होंगे,
बंद कमरों की बत्तियां भी बुझ गयी होंगी,
छुपा के भूख की ऐंठन को मुस्कराहट में,
रात भर करवटें तुम तो बदल रही होगी.

भूख है,प्यास है, फिर भी तुम्हारे चेहरे पर,
आज एक चमक है,संतोष है,कुछ पाने का
अपनी हाँथों  में लकीरों को गढ़ लिया तुमने,
हज़ार जन्म तक रिश्ता यही निभाने का


दूर तुमसे बहुत दूर
(पापा की शादी 06 -07 -1979 को हुयी थी ,
उन दिनों उनकी पोस्टिंग नवादा में थी .शादी
 के तुरत बाद वे नवादा चले गए .यह कविता
उनहोंने दिनांक 20 -07 -1979 को लिखी थी )


 .


तेरा वो रूठना,मचलना फिर मुस्काना,
कलाईयों की चूड़ियों का,तेरा खनकना
कभी शोखी से खिल- खिला के तेरा हँस देना,
और फिर शर्म से नज़रे तुरत झुका लेना,
इन्हें अब तक न एक पल को भूल पाया हूँ,
मैं तुमसे दूर, बहुत दूर चला आया हूँ

मेरी बेचैन निगाहें तुम्हे निहार रहीं,
मेरी सांसें तुम्ही को हर घडी पुकार रहीं ,
मेरी हर गीत में बसी है तुम्हारी धड़कन,
मेरी  हर याद बन चुकी है तुम्हारा दर्पण,
मुझे  अफ़सोस है मैं  प्यार दे न पाया हूँ,
मैं तुमसे दूर बहुत दूर चला आया हूँ.

मेरी चरों तरफ ख़ामोशी है तन्हाई है,
रात की स्याही,मेरे गिर्द सिमट आई है
मैं अकेला हूँ परेशान हूँ, घबडाया हूँ,
मैं तुमसे दूर बहुत दूर चला आया हूँ.

कसक
(दिनांक  21 -07 -1983 ,चक्रधरपुर )


मेरे पास क्या बचा है!काली उदास रातें,
मनहूस,अकेलापन,खामोशियाँ ,सन्नाटे.
बीते दिनों की यादों का एकमात्र संबल ,
मुझे याद आ रही हैं,वो सब पुरानी बातें.
गोरी कलाइयों में सजी चूड़ियों की खन- खन,
घूँघट हटा- हटा कर,वह झाँकता समर्पण.
झुकती  हुईं  पलकों का,कुछ और झुकते जाना,
तेरा शर्म से सिमटना,वह मूक सा निमंत्रण.

मिकी 
(पापा की posting उन दिनों चक्रधरपुर में थी .
वहां वे अकेले थे .घर आने का समय बहुत
मुश्किल से मिल पाता था.उन दिनों मिकी
 अकेली संतान थी ,वे उसे  बहुत miss करते थे )
       (वर्ष 1983 ,चक्रधरपुर )


 मिकी ,बहुत दिनों से तुमसे,
भेंट नहीं कर पाया हूँ
आने का मन होता  है,
 पर कुछ भी नहीं कर पाया हूँ
प्यार तुम्हे थोड़ा सा देकर ,
बहुत दूर हो जाता हूँ,
बहुत अधिक जब याद आती है,
 मन मसोस रह जाता हूँ
तू छोटी है,तू भोली है,
क्या समझेगी ये बातें,
तेरे बिन कैसे कटती हैं,
सुबह,शाम,और दिन रातें
पूछ रही होगी पापा को,
यही सोच घबड़ाता  हूँ,
चाह बहुत है आने की,
पर देखो कब आ पाता हूँ.

मिकी 
छोटे से मेरे घर में,प्यारा सा एक  आँगन,
आँगन में खेलता था,नन्हा अबोध बचपन.
अब पूछती है सबसे पापा कहाँ गए हैं,
पापा बहुत परेशां हैं सोच सोच  हर क्षण.
चाँदनी ...
(दिनांक 21 -12 -1980 ,आरा )


रात के अँधेरे में,गगरी हीं  फूट गयी,
फ़ैल गयी दुधिया सी  चांदनी यहाँ वहां,
देखते हैं तारे दरवाजो की ओट से,
फैली है दुधिया सी चाँदनी कहाँ कहाँ 
एक बड़े आँगन में थोड़े से दर्शक ये,
देख रहे खेल इस अचानक बिखराव का
बदलने लगा है अब अपने ही आप यहाँ,
हल्का सा रंग आसमानी फैलाव का.
सुनकर पुरवैया पड़ोसिन भी दौड़ चली,
देखा यह चाँदनी बिखरती ही जाएगी,
लोग तो रह जायेंगे देखते तमाशे ही,
चाँदनी तो पूरी की पूरी चुक जाएगी .
काँपती उँगलियों में रुई के फाहें ले,
जुट गयी है पोछने,उठाने  के काम  में .
लौट गयी पुरवैया काम ख़तम होते ही,
रुई के टुकड़ों को फेंक आसमान में.

Tuesday, 20 March 2012

बिन बरसे तुम लौट न जाना 
(पापा के द्वारा लिखी गयी यह दूसरी कविता
 है ,इस समय वे स्कूल में पढ़ते थे )


जाने कबसे आस लगाये ,
बैठी है यह वसुधा प्यासी ,
रहो बरसते, जिससे उसकी ,
धुल जाय यह घिरी उदासी .

बरसों कि सारी धरती पर ,
अब हरियाली छा     जाय ,
बरसो कि हर सूने घर में ,
सचमुच स्वर्ग उतर   जाय .

होंगी खुशियाँ हर चेहरे पर ,
हर ओर नया जीवन   होगा ,
यह गाँव जी उठेगा फिर से ,
सोंचो ,वह कैसा क्षण  होगा ,

फिर खुश हो जायेगा किसान,
चूमेगा खेतों की क्यारी
दौड़ा दौड़ा घर आएगा,
अब शुरू करूँ सब  तैयारी

जब तेज हवा में लहरेगा,
धरती का हरा भरा आँचल,
तुम भी ऊपर से झांकोगे,
सुध बुध अपनी खो कर उस पल

बातें तो तुमसे बहुत हुई,
पर एक बात तुम भूल न जाना
सबकी आस लगी है तुम पर,
बिन बरसे तुम लौट न जाना



एक याद 
  (वर्ष 1961 )


जिस तरह आंधी में एक
 पत्ता उड़ता हुआ     आता है ,
या चलते -चलते पैरों में
अचानक  काँटा चुभ जाता है ,
उसी तरह आज अचानक
 तुम्हारी याद ,       आ गयी ,
एक भूली -बिसरी तस्वीर ,
जो अब     धुँधला गयी ,
जैसे दीपक के जलते हीं
अँधेरे में रोशनी हो उठती है ,
या शाम होते हीं मीलों की
घंटियाँ     बज   उठती   हैं ,
उसी तरह तुम्हारी याद आते
हीं मैं कहीं   खो जाता हूँ ,
अपने वर्तमान से हट कर
पुराने क्षणों में  खो  जाता हूँ .
कह नहीं सकता कि अचानक
क्यों तुम्हारी याद आ गयी ,
सिर्फ इतना जानता हूँ कि
 आज  बस तुम्हारी याद  आ गयी .

    

Monday, 19 March 2012

बांसुरी 
  (दिनांक 19 -09 -1966 )


 दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में ,
 संध्या की बेला में बज रही है बांसुरी

थक कर हैं चूर -चूर ,गाँव अभी बहुत दूर ,        
लौटते किसानों की टोलियाँ भी मौन   हैं ,
रह -रह कर बैलों की घंटियाँ कह उठती है
देखो ,उस बरगद के नीचे वह कौन है .
देखते हैं बहुत दूर ,धुँधली सी आकृति ,
याद में किसी के वह ,बजा रही है बांसुरी

दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में ,
संध्या की बेला में ,बज रही है बांसुरी

गुमसुम आकाश है ,सूरज उदास है ,
क्योंकि अब जाने की बेला नियराई है ,
कानों में धीरे से पुरवैया कहती है -
देखो तो सूरज की आँखें भर आयीं हैं .
जा रहा है मंद मंद ,मुड़ मुड़ कर देखता ,
अब भी कोई बैठ कर बजा रहा है बांसुरी ,
   
दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में,
संध्या की बेला में ,बज रही है बांसुरी .

खेतों की हरियाली ,हो रही है अब काली ,
शीघ्र हीं अँधेरे में सबकुछ छुप जायेगा  ,
एक काले चादर के अन्दर सिमट कर ,
यह गाँव आज रोज की तरह हीं सो जायेगा
सुनसान रातों में मीठी सी मंद मंद ,
लोरियाँ सुनाती रह जायेगी बांसुरी ,

दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में ,
संध्या की बेला में बज रही है बांसुरी .

तुम्हारा कर्त्तव्य
   (यह पापा के द्वारा लिखी गयी पहली कविता
 है .उस समय वे  आठवीं या नौवीं क्लास में थे )


तुम भी कुछ हो प्यारे ,जग में तुमको भी कुछ करना है .
जब आये हो इस धरती पर ,तो कुछ करके ही मरना है .
क्या लाभ भला है यूँ बैठे  जीवन अपना खो देने में!
कुछ तो पावन उद्देश्य निहित है, जन्म तुम्हारे लेने में .

यह भू शोणित की प्यासी है ,जन इसकी प्यास बुझाता है ,
भाई की गर्दन पर छूड़ी वह निः संकोच       चलता है .
चित्कार कर रही मानवता ,त्राहि -त्राहि चिल्लाती  है .
पर अपने को वह ब्रह्म -पाश से मुक्त नहीं कर पाती  है .
तीब्र, दीप्त आलोक पुंज की आज जरूरत है जग को
जो ज्योतिर्मय कर दे मानव के अंधकारमय अंतर को ,

बन जाओ आलोक पुंज ,ला दो जग में तुम नव प्रभात ,
स्वर्णिम किरणों को बरसा दो ,तब बिहंसेगी वसुधा अनाथ ,
तुम में है वह सामर्थ्य दूर कर दे सत-सत कल -क्रंदन को ,
चाहो तो सफल बना सकते हो ,तुम अपने इस जीवन को .
क्या पाओगे यूँ बैठे -बैठे ,सारा जन्म           गँवाने     में ,
उपयुक्त यही है लग जाओ ,मानव को त्राण   दिलाने    में .
                

Tuesday, 6 March 2012

तलाश 
(पापा की  posting  रांची में थी .
वहां वे परिवार से दूर अकेले थे .
उन्हीं दिनों यह कविता लिखी गयी थी )
       (मई ,2003 ,रांची )


मुझे तलाश है एक कंधे की ,
जहाँ सर टिका कर रो सकूँ .
जहाँ आँखे बंद कर ,
कुछ पल के लिए ,
सब कुछ खो सकूँ .
जहाँ समय का पिघलना रुक जाए ,
जहां वर्तमान ठहर जाय,
बस ,केवल समय की अनुभूति रह जाय .
तलाश है चन्द सांसों की ,
जिन्हें मैं अपना कह सकूँ .
जिनकी गर्मी को ,
अपनी हंथेलियों में भर सकूँ ,
और जीवन के दो गीत गुनगुना सकूँ.
तलाश है एक सूने आँगन की ,
जहाँ मैं रो सकूँ ,चिल्ला सकूँ ,
किलकारियाँ भर सकूँ ,
और अपने बीते हुए कल को,
वापस ला सकूँ .
तलाश है ,रोशनी के चन्द कतरों की ,
जिनमें अपनी परछाईं देख सकूँ ,
एक बार ,सिर्फ एक बार ,
इसे अपनी नजरों से ,
शायद अपने जैसा देख सकूँ .
तलाश जारी है ,
निर्विराम,निःशेष ,निःशब्द .
           स्त्री 

  (दिनांक २९ .०२ २०१२ को पटना से
   बंगलोर जाते समय train में यह कविता
   लिखी गयी थी )


नन्ही बिटिया ,
माँ का आँचल ,
और कभी ,
पत्नी सा संबल,
कभी नीर झरता बादल,
कभी शून्य सा मरू -स्थल .
पर्ण -कुटी ,स्निग्ध ,निर्मल ,
रंग महल का कोलाहल.
कभी बँधी पैरों में सांकल ,
कभी इन्ही पैरों में पायल .
कहीं श्याम और कहीं धवल ,
कहीं सुधा और कहीं गरल .
हर क्षण ,हर पल ,
सम्हल सम्हल ,
इतने दलदल !
इतने हलचल !
देते तेरे रूप बदल .