.....और अंत में एक कविता मेरी भी -
पापा से दूर ,पापा के पास
(दिनांक 23 -12 -2003 ,राँची )
तुतली जुवान से पापा कहना सीखा था,
उनकी उंगलियाँ पकड़ कर चलना सीखा था ,
थी मैं बहुत छोटी तब ,
बची है धुँधली सी एक याद अब -
आँखों में आँसू लिए ,
प्यार से वाणी सने ,
जाने की बात कही ,पापा ने मुझसे जब .
मैं छोटी थी ,नासमझ थी ,
रूठ गयी पापा से ,
उनकी इस बात पर.
पर कराती क्या !
जाना तो था हीं पापा को वनवास पर .
बीतते गए साल ,
और हुयी मैं समझदार .
पापा आये और मैं खिल उठी तार -तार .
मैं खुश थी ,
मैं उत्सुक थी -
"मेरे पापा आयें हैं "!
मैं हवा से ,जमीन से आसमान से ,
सबसे कहती फिर रही थी -
"मेरे पापा आयें हैं ".
पर यह क्या !
फिर एक दिन जाना था पापा को .
कर्तव्य ने फिर से ,
पुकारा था पापा को .
मैं चुपचाप देखती रह गयी उस चहरे को ,
जहाँ सिर्फ थकान थी ,
एक फीकी मुस्कान थी ,
मैं एक टक ताकती रह गयी उस चहरे को .
मैं खुश हो कर झूम उठती थी ,
आते थे पापा जब ,
पर गुमसुम कहीं अन्धेरे में ,
खो जाती थी ,
जाते थे पापा जब .
डरती हूँ -
शायद जब फुर्सत मिले पापा को आने को ,
मैं न हो जाऊं तैयार ,
रण कें उतर जाने को .
पापा से दूर ,पापा के पास
(दिनांक 23 -12 -2003 ,राँची )
तुतली जुवान से पापा कहना सीखा था,
उनकी उंगलियाँ पकड़ कर चलना सीखा था ,
थी मैं बहुत छोटी तब ,
बची है धुँधली सी एक याद अब -
आँखों में आँसू लिए ,
प्यार से वाणी सने ,
जाने की बात कही ,पापा ने मुझसे जब .
मैं छोटी थी ,नासमझ थी ,
रूठ गयी पापा से ,
उनकी इस बात पर.
पर कराती क्या !
जाना तो था हीं पापा को वनवास पर .
बीतते गए साल ,
और हुयी मैं समझदार .
पापा आये और मैं खिल उठी तार -तार .
मैं खुश थी ,
मैं उत्सुक थी -
"मेरे पापा आयें हैं "!
मैं हवा से ,जमीन से आसमान से ,
सबसे कहती फिर रही थी -
"मेरे पापा आयें हैं ".
पर यह क्या !
फिर एक दिन जाना था पापा को .
कर्तव्य ने फिर से ,
पुकारा था पापा को .
मैं चुपचाप देखती रह गयी उस चहरे को ,
जहाँ सिर्फ थकान थी ,
एक फीकी मुस्कान थी ,
मैं एक टक ताकती रह गयी उस चहरे को .
मैं खुश हो कर झूम उठती थी ,
आते थे पापा जब ,
पर गुमसुम कहीं अन्धेरे में ,
खो जाती थी ,
जाते थे पापा जब .
डरती हूँ -
शायद जब फुर्सत मिले पापा को आने को ,
मैं न हो जाऊं तैयार ,
रण कें उतर जाने को .
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