Thursday, 29 December 2011

 आपबीती     
(यह कविता पापा ने वर्ष 2008 में अपने
 retirement के तुरत बाद लिखी थी )
       (वर्ष 2008 ,रांची )

रोज रोज की भाग दौड़ में
 समझ नहीं कुछ भी आया ,
 किससे मिलन, जुदाई किससे ,
कौन गया और कौन  आया .
कभी फिसलता, कभी सम्हलता 
निकल बहुत मैं दूर आया 
लोग छूटते गए, भीड़ छूटी,
मैं रोक नहीं पाया .
कब चहरे पर पड़ी झुर्रियां ,
बालों पर कब चढ़ी सफेदी ,
जाने कब ढल गयी दोपहर ,
संध्या ने कब दस्तक दे दी .
फुर्सत मुझे कहाँ थी देखूं ,
आसपास कब कहाँ क्या हुआ ,
मिकिया कब बन गयी आस्था ,
चिकिया कब बन गयी अपूर्वा.
आज मिला है जब विराम तो ,
थका- थका खुद को पाया ,
जीवन का संक्षेप  यही है ,
कुछ खोया और कुछ पाया .                 

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