Monday, 19 March 2012

तुम्हारा कर्त्तव्य
   (यह पापा के द्वारा लिखी गयी पहली कविता
 है .उस समय वे  आठवीं या नौवीं क्लास में थे )


तुम भी कुछ हो प्यारे ,जग में तुमको भी कुछ करना है .
जब आये हो इस धरती पर ,तो कुछ करके ही मरना है .
क्या लाभ भला है यूँ बैठे  जीवन अपना खो देने में!
कुछ तो पावन उद्देश्य निहित है, जन्म तुम्हारे लेने में .

यह भू शोणित की प्यासी है ,जन इसकी प्यास बुझाता है ,
भाई की गर्दन पर छूड़ी वह निः संकोच       चलता है .
चित्कार कर रही मानवता ,त्राहि -त्राहि चिल्लाती  है .
पर अपने को वह ब्रह्म -पाश से मुक्त नहीं कर पाती  है .
तीब्र, दीप्त आलोक पुंज की आज जरूरत है जग को
जो ज्योतिर्मय कर दे मानव के अंधकारमय अंतर को ,

बन जाओ आलोक पुंज ,ला दो जग में तुम नव प्रभात ,
स्वर्णिम किरणों को बरसा दो ,तब बिहंसेगी वसुधा अनाथ ,
तुम में है वह सामर्थ्य दूर कर दे सत-सत कल -क्रंदन को ,
चाहो तो सफल बना सकते हो ,तुम अपने इस जीवन को .
क्या पाओगे यूँ बैठे -बैठे ,सारा जन्म           गँवाने     में ,
उपयुक्त यही है लग जाओ ,मानव को त्राण   दिलाने    में .
                

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