चाँदनी ...
(दिनांक 21 -12 -1980 ,आरा )
रात के अँधेरे में,गगरी हीं फूट गयी,
फ़ैल गयी दुधिया सी चांदनी यहाँ वहां,
देखते हैं तारे दरवाजो की ओट से,
फैली है दुधिया सी चाँदनी कहाँ कहाँ
एक बड़े आँगन में थोड़े से दर्शक ये,
देख रहे खेल इस अचानक बिखराव का
बदलने लगा है अब अपने ही आप यहाँ,
हल्का सा रंग आसमानी फैलाव का.
सुनकर पुरवैया पड़ोसिन भी दौड़ चली,
देखा यह चाँदनी बिखरती ही जाएगी,
लोग तो रह जायेंगे देखते तमाशे ही,
चाँदनी तो पूरी की पूरी चुक जाएगी .
काँपती उँगलियों में रुई के फाहें ले,
जुट गयी है पोछने,उठाने के काम में .
लौट गयी पुरवैया काम ख़तम होते ही,
रुई के टुकड़ों को फेंक आसमान में.
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