Friday, 23 March 2012

तुम्हारी चूड़ियाँ...
  (वर्ष 1998 )


  
कभी खेल खेल में,
मैंने रख ली थी तुम्हारी चूड़ियाँ.
आज इन्हें जब देखता हूँ ,तो आँख भर आती हैं.
फुर्सत के क्षणों में तुम्हारी बहुत याद आती है.


कभी संग- संग बैठ कर,
चाँद को निहारना.
कभी मिल जुलकर चिड़ियाँ के टूटे घर को सवांरना,
कभी बारिश में,
गिरती हुई बूंदों को देखना,
कभी अलसाई झील में, तुम्हारा कंकडों को फेंकना.
इन चूड़ियों की परिधि में ,
एक ज़िन्दगी सिमट जाती है.
फुर्सत के क्षणों में तुम्हारी बहुत याद आती है .


चूड़ियाँ, जो कलाईयों में
खनखनाती थीं, हँसती थीं ,
जो  कभी मेरे लिए,
बस, खेल- दिल्लगी भर थीं ,
आज तुमसे अलग होकर
गुमसुम हैं, उदास हैं
अब मेरे लिए यादों का आइना हैं.
करीब होने का एहसास हैं.
एक टीस सी उठती है,
बीतें दिनों की जब बात निकल आती है.
फुर्सत के क्षणों में तुम्हारी बहुत याद आती है .











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