Monday, 19 March 2012

बांसुरी 
  (दिनांक 19 -09 -1966 )


 दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में ,
 संध्या की बेला में बज रही है बांसुरी

थक कर हैं चूर -चूर ,गाँव अभी बहुत दूर ,        
लौटते किसानों की टोलियाँ भी मौन   हैं ,
रह -रह कर बैलों की घंटियाँ कह उठती है
देखो ,उस बरगद के नीचे वह कौन है .
देखते हैं बहुत दूर ,धुँधली सी आकृति ,
याद में किसी के वह ,बजा रही है बांसुरी

दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में ,
संध्या की बेला में ,बज रही है बांसुरी

गुमसुम आकाश है ,सूरज उदास है ,
क्योंकि अब जाने की बेला नियराई है ,
कानों में धीरे से पुरवैया कहती है -
देखो तो सूरज की आँखें भर आयीं हैं .
जा रहा है मंद मंद ,मुड़ मुड़ कर देखता ,
अब भी कोई बैठ कर बजा रहा है बांसुरी ,
   
दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में,
संध्या की बेला में ,बज रही है बांसुरी .

खेतों की हरियाली ,हो रही है अब काली ,
शीघ्र हीं अँधेरे में सबकुछ छुप जायेगा  ,
एक काले चादर के अन्दर सिमट कर ,
यह गाँव आज रोज की तरह हीं सो जायेगा
सुनसान रातों में मीठी सी मंद मंद ,
लोरियाँ सुनाती रह जायेगी बांसुरी ,

दूर किसी गाँव में ,बरगद की छाँव में ,
संध्या की बेला में बज रही है बांसुरी .

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