Friday, 23 March 2012

ए जी ,सुन तारु ??
(यह कविता पापा की अन्य कविताओं से
बिल्कुल अलग है .इसमें लालची माँ-बाप
 की मानसिकता पर तीखे व्यंग हैं )
      (वर्ष  १९९६ ,कहलगांव )



ए जी सुन तारु ?? 

बबुआ जवान भईले,बेंचे के सामान भईले ,
खोल के दूकान अब बैठ जाईं जा.
लड़िका के बाप भईलीं,राजा अपने आप भईलीं ,
दुनु प्राणी हमनी के ऐंठ जाईं जा.

ए जी सुन तारु ??
बबुआ त पढ़ तारे,दूर के शहरिया में,
दुनिया ख़राब बा,सब केहू कहता.
दिन - दुपहरिया में,रात के अंधरिया में
सब केहू लड़िका फँसावे में रहता .


ए जी सुन तारु ??
देख कौनो चंद्रमुखी,बबुआ फिसल गईलन,
तब तो बस हमनी के दुनिया ही लुट जाई,
चूर -चूर हो जाई जिंदगी के सपना,
ई बुढ़वा और बुढिया के किस्मत ही फूट जाई.


ए जी सुन तारु ??
लड़कवा में   हमनी के दुनिया बा, जान बा,
खेत बा ,खलिहान बा,मकान बा,दूकान बा,
लड़कवा हाथ से निकले न पावे बस ,
ए ही लेखा,हमनी के करे के कुछ काम बा.
ए जी सुन तारु ??


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