एक बार फिर तुमसे बहुत दूर...
(यह कविता भी जब जब पापा घर से दूर
बाँका में रहते थे ,तब उन्होंने लिखी थी )
(वर्ष 1997 ,बाँका)
जब पुरवैया,
धीरे धीरे मेरे करीब आती है,
तुम्हारे रेशमी आँचल का एहसास करा जाती है.
दूधिया चांदनी,
तुम्हारी संगमरमरी देह बन जाती है.
और पीपल के पत्तों की सरसराहट में,
तुम्हारी हँसी खनक जाती है.
ऐसे में,
अकेले होने का एहसास,
और भी बढ़ जाता है.
दर्द फिर से हरा हो जाता है.
लेकिन आज यह दर्द भी,
मुझे अपना लगने लगा है,
क्योंकि -
यह मुझे तुम्हारे करीब लाता है.
(यह कविता भी जब जब पापा घर से दूर
बाँका में रहते थे ,तब उन्होंने लिखी थी )
(वर्ष 1997 ,बाँका)
जब पुरवैया,
धीरे धीरे मेरे करीब आती है,
तुम्हारे रेशमी आँचल का एहसास करा जाती है.
दूधिया चांदनी,
तुम्हारी संगमरमरी देह बन जाती है.
और पीपल के पत्तों की सरसराहट में,
तुम्हारी हँसी खनक जाती है.
ऐसे में,
अकेले होने का एहसास,
और भी बढ़ जाता है.
दर्द फिर से हरा हो जाता है.
लेकिन आज यह दर्द भी,
मुझे अपना लगने लगा है,
क्योंकि -
यह मुझे तुम्हारे करीब लाता है.
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