Sunday, 25 March 2012

डोरी..
(राँची में posting के दौरान शुरू में पापा को बहुत
दिनों तक अकेले रहना पड़ा.एकबार मम्मी वहाँ
चार -पाँच दिनों के लिए  गयीं .कपड़े सुखाने के
लिए  उनहोंने आँगन में एक डोरी बाँध दी .यह
 कविता उसी पर है.) .
     (दिनांक 25 -11 -2003 )



जब तुम यहाँ आई थी,
तुमने बाँध दी थी
आँगन में एक डोरी.
मैं झल्लाया था,
गुस्साया था,
तुम हंसती रही,
और बंधे रहने दी वह डोरी.
बहुत दिन बीत गए ,
बहुत रातें कट गयीं,
सूरज दस्तक देता रहा,
चाँदनी झाँकती रही,
अतीत धुंधलाता गया,
साल दर साल,
झुर्रियों में बदलते गए,
पल दर पल,
हम और तुम बदलते गए,
लेकिन मेरे आँगन में
आज भी बंधी  हुई है वह डोरी,
न मैं उसे निहारता हूँ,
न छूता हूँ,
न इसके बारे में सोचता हूँ,
फिर भी नहीं खोल पाया हूँ,
आजतक यह डोरी,
आज अकेले में बैठ कर
जब मैं इसे निहारता हूँ,
छूता हूँ,
इसके बारे में सोचता हूँ,
तो पाता हूँ,
सूने घर का,
एक हिस्सा बन गयी है यह डोरी.







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